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बचपन चला गया
दोस्त बदल गए
लोग बदल गए
समय बदल गया
सुकून भरी वो शाम
अच्छे लगने वाले वो रोज बदल गए
चंद रुपयों के खातिर मजबूर हूँ ,तिल तिल कर जीने के लिए
इस कंक्रीट के जंगल में
बहुत कोशिश किया लेकिन नहीं ला पाया वो सुकून भरा और अपनापन वाला समय
कोशिश फिर भी जारी है
समझ गया हूँ लेकिन किसी को समझा नहीं पाया की असली सुकून भरी जिंदगी
इन बड़ी बड़ी ईमारतों में नहीं ,
एसी के कमरों में नहीं ,
स्विमिंग पुलों में नहीं ,
महँगे होटलों और वहां के खानों में नहीं है
ये सब तो कुछ दिनों के लिए ही सही है
असली सुकून है उस गांव में जहाँ
अपनेपन वाला संस्कार है ,खुला आँगन है ,
जहाँ के चूल्हों पर बिना मिलावट वाला शुद्ध खाना बनता है
जहाँ के नदियों के पानी में कुदरत का अपनापन झलकता है
सोच रहा हूँ कहाँ खोजूँ वो गांव
अपनापन से भरे परिवारों वाले वो गांव बदल गए
समझ गया हूँ लेकिन किसी को समझा नहीं पाया
कोशिश फिर भी जारी है
पढ़ी लिखी जनसंख्या है लेकिन समझ कर बदलाव कोई नहीं लाना चाहता है
डिग्री लेकर हर कोई नौकरी के लिए
महानगरों में भाग रहा है
मशीनों की तरह जिंदगी हो गयी है
कुछ पता नहीं कब सो रहा कब जग रहा है
शिक्षा का सही इस्तेमाल करके
अपने हुनर को समझकर और निखारकर
बदलाव लाना जरुरी है
समझ गया हूँ लेकिन किसी को समझा नहीं पाया
कोशिश फिर भी जारी है
सुना है मेहनत कभी किसी की बेकार नहीं होती
जो करते हैं हमेशा कोशिश उनकी कभी हार नहीं होती
उम्मीद और मेहनत के सहारे चलते रहना है
सफलता जरूर मिलेगी एक दिन
निराशा पर ये उम्मीद भारी है
समझ गया हूँ लेकिन समझा नहीं पाया हूँ
कोशिश फिर भी जारी है
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