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ईंट, पत्थर और कंक्रीट के जंगलों में कागज़ी घोड़ों पर सवार तरक्की का सपना देखते देखते
याद आ रहा है वो बचपन का गांव
बहती हुई नदी ,नदी में तैरती हुई मछलियाँ
तैरते हुए लोग ,नदी में छलाँग लगाते हुए बच्चे
अक्ल के कच्चे पर मन के सच्चे
कच्चे सड़कों,पगडंडियों पर बैलगाड़ी के पहियों ,साईकिल के टायरों और दूर तक हवा के साथ लहराते हुए फसलों पर तरक्की के साथ धीरे धीरे आगे बढ़ता हुआ मेरा गांव
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ना जाने क्यों जब मैं दूर होता हूँ अपने गांव से
गांव मेरे ख्यालों में आता है
शायद यह मुझे एहसास दिलाता है की कुछ रह गया है
या यूँ ही सताता है
शायद कहता है मुझसे यहीं रुक जाओ
यहाँ की समस्याओं को निपटाओ
और मुझे आगे बढ़ाओ फिर सारी दुनिया यही पर पाओ
मैं क्या हूँ यह सारी दुनिया को दिखलाओ
यहाँ पर धुआँ उगलती फैक्टरियां ना सही
खेतों में हरे भरे लहराते फसलों के साथ जीवन तो है
दुनिया को उसकी सही कीमत समझाओ
बिना कुदरत को नुकसान पहुँचाये भी विकास हो सकता है
यह तुम यहाँ कर के दिखलाओ
समय अपनी गति से आगे बढ़ रहा है
दिवार पर टंगी घड़ी में चलती हुई सुई को देखता हूँ तो लगता है जैसे सुई नहीं कोई तेज़ धार वाली तलवार हो , ऐसी तलवार जो घूमते हुए रिश्तों से रिश्तों को ,जंगलों से पेड़ों को काटती जा रही है
ऐसी तलवार जो आदमी को मशीन ,खुशियों को गमगीन और घरों को मशीनों से भरे केबिन में बदलती जा रही है
ना जाने मानव की सभ्यता कहाँ शुरू हुई और कहाँ जा रही है।
हम कहाँ जा रहे हैं .
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