हमेशा की तरह मैं उस दिन कुछ प्रिंटआउट निकलवाने उस दुकान पर गया जो की मेरे घर से कुछ दूरी पर है। दुकानवाला मेरी जान पहचान का है। थोड़ा हालचाल हुआ। और हालचाल होने के बाद उसने मुझे एक शिवचर्चा में नहीं आने का कारण पूछा। उसका कहना था की तुम शाम को शिवचर्चा में नहीं दिखाई देते। तुमको आना चाहिए। मैंने उसे बताया की मुझे मेरे काम से फुर्सत नहीं मिलती। फिर उसने कहा की ये ठीक नहीं है। मैं कुछ बोलना नहीं चाहता पर तुमको आना चाहिए। मुझे उसकी ये बात धमकी भरी लगी। लेकिन फिर मैंने अपना पक्ष रखा की मेरे घर के लोग तो जाते ही हैं। और मेरा काम ऐसा है की कभी बहुत ही खाली रहता हूँ और कभी इतना काम रहता है की बाहर निकलने का समय ही नहीं मिलता है।
हालाँकि मैं चाहता तो ये जवाब भी दे सकता था की मेरी मर्जी, मुझे नहीं पसंद है अगर आपको पसंद है तो आप खुशी से जाइए लेकिन मुझे ऐसा मत बोलिये।
लेकिन मुझे इस तरह के जवाब देना उचित नहीं लगता और अगर सही से समझा जाये तो जहाँ तक हो सके इस तरह के जवाब देने और शब्द इस्तेमाल करने से बचना चाहिए।
माना की उसको भी इस तरीके से नहीं बोलना चाहिए लेकिन ये जरूरी नहीं है की अगर सामने वाला गलत तरीके से बात कर रहा है तो हम भी गलत तरीके से ही बात करें। हालाँकि किससे कैसे पेश आना चाहिए ये सामने के हालात पर निर्भर करता है।
लेकिन मैंने जो अभी अपने हालात बताये उसके अनुसार मैंने उसे उसके तरीके से जवाब नहीं दिया क्योंकि इसके पीछे कारण भी है और फायदे भी हैं।
मेरे लिए वो सिर्फ वो एक दुकानदार नहीं है बल्कि लम्बे समय से मेरा दोस्त भी है। ऐसे कई मौके आये हैं जब मेरे पास किसी कारण से पैसे कम होते हैं या छुट्टे की समस्या होती है तो वो अकसर उतने पैसे छोड़ देता है या ये कह कर टाल देता है की कोई बात नहीं बाद में दे देना।
उससे मुझे आगे भी बहुत काम लेना है। दोस्ती व जान पहचान होने के कारण वह मुझे सही चीज़े बेचता है और सही दाम पर बेचता है। शिवचर्चा ,मंदिर, मस्जिद इत्यादि ये सब धार्मिक और श्रद्धा के विषय होते हैं इन मुद्दों से जहाँ तक हो सके बहस करने से बचना चाहिए अगर ऐसी किसी चीज़ में किसी की श्रद्धा है तो हमें जहाँ तक हो सके उसका दिल नहीं दुखाना चाहिए और अगर श्रद्धा के प्रभाव में अगर उससे कुछ ऐसे शब्द निकल भी जाएँ तो हमें चुपचाप सुन लेना चाहिए उसकी भावनाओं की क़द्र करते हुए। वो मुझसे ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं है और ना ही उसकी आर्थिक स्थिति मेरे परिवार की आर्थिक स्तिथि से अच्छी है। जितने समय से मैं उसे पहचानता हूँ मुझे वो दिल का बिलकुल साफ़ लगता है।
एक कम पढ़ा लिखा लेकिन एक अच्छा बिजनेस मैन होने के नाते वह जो है बिना किसी लागलपेट के सामने बोल देता है। हालाँकि वो मुझसे ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं है और धार्मिक मुद्दों और ऐसे और मुद्दों पर उसकी समझ मुझसे ज्यादा नहीं है तो ऐसे में मुझे किसी दूसरे तरीके से जो की उसके अहम् को चोट ना पहुँचाये उसको जागरूक करने की कोशिश करनी चाहिए।
अब ऐसा भी नहीं है की मैं भी एकदम सही हूँ। मेरे नज़रिये में भी कमी हो सकती है। हाँ ये जरूर है की मैं किसी भी चीज़ पर या विषय पर खुल कर और तर्कसंगत तरीके से सोच सकता हूँ। भले ही वो चीज़ या विषय मेरी पसंद का हो या ना हो।
ऐसे ही भगवान और आस्था का विषय बड़ा ही गंभीर और उलझा हुआ है। देखा और समझा जाये तो भगवान् को किसी ने नहीं देखा है की वो कैसे दिखते हैं। उन्हें क्या पसंद है और क्या नहीं पसंद है। अगर मानों तो भगवान है नहीं मानों तो नहीं है। जो नहीं मानते उन्हें नास्तिक कहा जाता है। इनमें आपको कई वैज्ञानिक ,विचारक और आम लोग मिल जायेंगे। इनमें ऐसे भी लोग मिल जायेंगे जो किसी ऐसे समुदाय से होते हैं जो की अगर इतिहास पढ़ा जाये तो बहुत ही लम्बे समय तक किसी विशेष धर्म या जातियों द्वारा सताए गए है भगवान और रिवाज के नाम पर।
जो मानते हैं की भगवान् हैं उन्हें आस्तिक कहा जाता है। इनमें भी बहुत अंतर होता है भगवान् को लेकर नजरिये का अंतर होता है। रिवाजों का अंतर होता है। इनके अनुसार भगवान् के घर भी अलग अलग होते हैं और उन घरों के अलग अलग नाम हैं जैसे मंदिर ,मस्जिद ,चर्च , गुरुद्वारा इत्यादि। सबसे ताज्जुब और उलझन वाली बात ये है की कभी कभी हर कोई भगवान् को लेकर अपनी श्रद्धा ,नज़रिये को सही ठहराता है और अन्य के नज़रिये और श्रध्दा को गलत ठहराता है। इस उलझन में कभी कभी कुछ मामला बहुत गरम हो जाता है। भगवान को मानने वालों में कुछ लोग जिनमें मैं भी आता हूँ। ये मानकर चलते हैं की भगवान हैं और अगर नहीं हैं तो कोई ना कोई सकरात्मक ऊर्जा जरूर है जो इस दुनियां को चला रही है। अगर नहीं है तो कुछ तो वजह होगी इस दुनिया के बनने और चलने के पीछे। इसलिए मुझ जैसे लोग हर मजहब कह लीजिये या नज़रिये कह लीजिये को सकारात्मक रूप में लेते हैं और हर जगह श्रद्धा से सर झुका लेते हैं। लेकिन बहुत ज्यादा रिवाजों को मानने से बचते हैं।
लेकिन भगवान् और श्रद्धा के विषय में बात की जाये तो इस पर कोई एक राय बनना लगभग नामुमकिन लगता है। क्योंकि हाथी के मामले में मुद्दा सुलझ गया क्योंकि हाथी को बहुत लोगों ने देखा था और जानते थे सिर्फ कुछ लोग नहीं देख पा रहे थे। लेकिन भगवान को तो किसी ने नहीं देखा है चाहे वो पढ़ा लिखा हो , अनपढ़ हो ,वैज्ञानिक हो ,कोई धर्मगुरु हो। इसलिए इसपर एक राय बननी तो लगभग असंभव ही है। कभी कभी तो लगता है की इसका हल तभी हो सकता है जब भगवान् खुद ही सामने आजायें और कहें की देखलो इंसानो मैं ही हूँ भगवान्। मैं ऐसा दिखता हूँ। मैंने ही ये दुनिया बनाई है। मुझे ये पसंद हैं। ये पसंद नहीं है। मेरे बारे में बताई गयी ये बातें सही हैं और ये बातें सही नहीं है।
अब जरा सोच कर देखिये भगवान् के बारे में बहस कर के एक दूसरे को गलत साबित करने वाले और झगड़ा करने वाले लोग उन अंधों से भी ज्यादा नासमझ हो सकते हैं। या कुछ ज्यादा ही चालाक व शातिर हो सकते हैं जो लोगों में नासमझी और भ्रम फैलाकर आपस में लड़वाकर अपना मतलब और फायदा देखने वाले हो सकते हैं।
और आज की दुनियां वैज्ञानिक रूप से बहुत तरक्की कर चुकी है। आज जो भी मुद्दा हमारे सामने आता हो हम उसपर आपस में आंख बंदकर के किसी एक का पक्ष लेकर बहस करने और बंटने से अच्छा है तार्किक रूप से सोचना शुरू करें।
आज के दौर में हम बेसक व्यक्तिगत रूप से अकेले हैं और एक तरह का अकेलापन महसूस करते होंगे लेकिन सामाजिक तौर पर हम सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। अपनी छोटी से लेकर बड़ी जरूरतों तक हम सब एक दूसरे पर निर्भर हैं चाहे किसी विषय को लेकर हमारा नजरिया कुछ भी हो और एक दूसरे से मेल ना खाता हो। उदाहरण के तौर पर दूध के उत्पादन से लेकर सबके रसोईघर में चाय बनने तक बहुत सारी प्रक्रियाएं और अलग तरह के लोगों की सेवाएँ जुड़ी हुई हैं।
इसलिए ये कहना गलत नहीं होगा की धर्म को लेकर ,श्रदा को लेकर या फिर अन्य किसी मुद्दे को लेकर भले ही हम सबका नजरिया अलग अलग हो लेकिन हमे उन मुद्दों के कारण एक दूसरे से अपना व्यवहार नहीं बिगाड़ना चाहिए और एक दूसरे की मदद करते रहना चाहिए।
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