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उस दिन जब मैं कॉलेज से परेशान होकर अपनी मोटरसाइकिल पर बैठकर घर के लिए निकला। मैं चला तो मोटरसाइकिल रहा था लेकिन दिमाग परेशानियों के उलझन में उलझा हुआ था। सूरज की रोशनी धीरे धीरे कम हो रही थी। दिन ढल रहा था और शाम हो रही थी। ढेर सारी ट्रैफिक और शोर - शराबे में मेरी नज़र मेरे से आगे चल रही बस पर पड़ी जिसके पीछे लिखा था "सत्य परेशान हो सकता है पराजित नहीं " . अब ये लाइन मुझे उसी समय क्यों दिखी भगवान की मर्ज़ी से दिखी या किस्मत से दिखी पता नहीं। जब भी इस शहर में परेशान घुमा तब किसी ना किसी वाहन पर ये लाइन दिख ही जाती थी। कभी कभी परेशान नहीं होने पर भी आते जाते ये लाइन दिख ही जाती थी।
परेशान होता भी क्यों ना बहुत कोशिश करने के बाद भी मैं सेना में भर्ती नहीं हो पाया था। मेरी मेहनत और समपर्ण देख कर मेरे दोस्तों और मेरे आसपास के लोगों को भी लगता था की मैं सेना में अफसर बनने में जरूर कामयाब हो जाऊंगा। उनसे ज्यादा मुझे खुद पर भरोसा था की मैं जरूर कामयाब होऊंगा और मैंने तैयारी करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ा था। मैंने हर तरह से मेहनत किया था चाहे वो शारीरिक हो या मानसिक लेकिन मेरे लिए ये एक कड़वा सच है की मैं सेना में भर्ती नहीं हो पाया। कोशिश करते करते आखरी मौका भी निकल गया। उन दिनों मैंने ये सोच बना कर खुद को मना लिया था की चलो झंझट ही खत्म हो गया है। ना फ़ौज मेरे लिए थी ना मैं फ़ौज के लिए था वैसे ये लाइन या विचारधारा मेरे नहीं थे ये विचारधारा एन सी सी के समय मेरे कुछ सीनियर लोगों के थे जो मैंने हालात के अनुसार अपना लिया था। और ये विचार अपनाने से मुझे नाकामयाब होने का दुःख नहीं हुआ। रिजेक्ट होकर वापस लौटते समय मुझे यहीं लग रहा था की ये झंझट ही ख़त्म हो गया और जीवन में कुछ और करने के लिए मैं आज़ाद हो गया।
लेकिन मेरा एक दोस्त जो मेरे साथ ही रिजेक्ट हुआ था वो बहुत ही दुखी था और निराशा वाली बातें कर रहा था। मैंने उसे समझाते हुए कहा था की मुझे देख मेरा ये आखरी मौका था लेकिन फिर भी मैं निराश नहीं हूँ। आगे कुछ ना कुछ तो अच्छा कर ही लूंगा। तेरे पास अभी एक और मौका बाकि है। उसके बाद हम अलग अलग ट्रेनों में बैठे और निकल पड़े अपने अपने सफर की ओर।
वैसे इस बारे में अब भी सोचता हूँ तो लगता है की मैंने अपने आप को निराशा से तो बचा लिया लेकिन वो समय जो उम्मीद और तैयारी में निकल गया उसका क्या। कभी कभी लगता है की उस समय कुछ किया होता या कोई व्यावसायिक पाठ्यक्रम भी किया होता तो अच्छा होता या फिर अपने शौक से सम्बंधित काम पर ध्यान लगा कर कोई काम शुरू करता तो भी अच्छा होता लेकिन ये भी सच है की अगर फ़ौज में सेलेक्ट हो गया होता तो भी जिंदगी और अच्छी हो गयी होती। वैसे नाकामयाब होने पर ऐसे बहुत से ख्याल आते हैं की ये हो सकता था ,वो हो सकता था ,ऐसे हो सकता था वैसे हो सकता था। लेकिन किसी भी चीज़ के बारे में पक्का कुछ कहा नहीं जा सकता है। लेकिन मैंने आर्मी की लाइफस्टाइल नहीं छोड़ा। सुबह जल्दी उठना और कसरत करना और हर काम समय से करना मैंने नहीं छोड़ा। लेकिन ये सच है मैं परेशान हुआ।
घर आने के बाद मुझ पर दबाव बनने लगा की अब आगे क्या करेगा। हमेशा बेरोजगारी का ताना सुनना पड़ता था। ऐसे में मैंने तय किया की मैं बी एड करूँगा। उन दिनों बी एड एक ही साल का होता था। लेकिन परेशानी यही ख़त्म नहीं हुई। मैंने एंट्रेंस एग्जाम देने के बाद जो कॉलेज चुना वो इसलिए की यहाँ पर स्थानीय भाषा की समस्या नहीं होगी। लेकिन ये सिर्फ कहने की बात ही निकली उस कॉलेज में भी स्थानीय भाषा का प्रभाव अधिक था। मैं बचपन से किसी एक जगह पर रहा नहीं था। इसलिए मैं हिंदी अच्छी बोलता हूँ क्योंकि हमारे देश में हिंदी ही ऐसी भाषा है जिसने हम अलग अलग भाषा वाले देशवासियों को जोड़ रखा है और ये बिलकुल सच है। इसलिए अलग भाषा वाले दोस्तों के कारण हिंदी का इस्तेमाल ज्यादा होता है। और मुझे स्थानीय भाषा ना आने के कारण प्रोफेसरों के निर्देश नहीं समझ में आते थे जिसके कारण बहुत सिखने वाली बातें मुझे समझ नहीं आती थी और हमेशा मेरे सामने असमंजस वाली स्तिथि बनी रहती थी। कभी कभी तो कुछ ऐसा हो जाता था की मैं हंसी का पात्र बन जाता था। एक ऐसी ही घटना मैं बताना चाहूंगा।
वो दिन मेरा पहला इन्टर्नशिप था। मैं बहुत पूछताछ करने के बाद बताये गए स्कूल में पहुंचा। उस स्कूल का माहौल भी स्थानीय भाषा से अधिक प्रभावित था। मुझे काफी असमंजस महसूस हो रहा था। उस दिन मुझे पांचवी कक्षा में इंग्लिश पढ़ाने के लिए जाना था। जब पढ़ाने का समय हुआ मैं सारे जरुरी सामान लेकर क्लास के लिए निकला। मैंने वहां एक आदमी से पूछा की पांचवी क्लास कौन सी है और कहाँ है तो उसने अपनी स्थानीय भाषा में ही एक तरफ इशारा करते हुए बताया। मैं उसके बताये हुए दिशा में चल पड़ा।
मैंने अंदर प्रवेश किया। मैंने देखा बाहर एक साइकिल खड़ी है। मैंने सोचा होगी किसी बच्चे की। मैं और अंदर गया। मैंने सोचा बड़ी अजीब क्लास है यहाँ तो बैठने के लिए सोफे रखे हुए हैं। थोड़ा और आगे बढ़ने पर मैंने देखा की एक टी वी भी रखी हुई है।अब मैं समझ गया की मैं क्लास में नहीं किसी के घर में घुस आया हूँ। मैं जल्दी से वहां से बाहर निकला। पीछे से भागते हुए कोई महिला आयी और उन्होंने मुझसे स्थानीय भाषा में ही पूछा की क्या चाहिए तुमको मैं समझ गया और बताया की कुछ नहीं आंटी मैं पढ़ाने आया था। वो भी समझ गयी और हँसते हुए बोली की क्लास यहाँ नहीं इसके बाजु में है।
बाद में जब ये बात सबको पता चली तो वो सब ने इस किस्से का बहुत मज़ा लिया। वैसे इस किस्से के बारे में सोचता हूँ तो मुझे भी बहुत हंसी आती है। लेकिन समय गुजरने के साथ परेशानियां बढ़ती गयी। मुझे जो शिक्षा मिलनी चाहिए थी वो नहीं मिल रही थी सिर्फ दबाव बढ़ रहा था वो भी मानसिक। कॉलेज भी मेरे घर से काफी दूर था। मोटरसाइकिल से भी एक घंटे से ज्यादा ही लग जाता था सफर करने में। परेशान होकर एक बार मैंने सोचा था की कॉलेज छोड़कर कोई छोटी मोटी नौकरी ही कर लेता हूँ। मैंने अपने घर में इस बारे में बात किया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। मुझे कहा गया की अभी इतना कर ही लिया है तो और कर लो और तुम्हारे एडमिशन में इतने पैसे भी तो लग गए हैं। वो अलग बात है की तब मैंने पूरी फीस नहीं भरा था पर थोड़ा बहुत तो भर ही दिया था। अब घर वालों के मना करने के बाद तो कॉलेज छोड़ने का सवाल ही ख़त्म हो गया था। अब कैसे भी हो कॉलेज पूरा करना ही था। जब लेक्चर में बैठता था तो यहीं सोचता था की कहाँ फँस गया हूँ मैं और मुझे पुराने दिनों की याद आने लगती थी खासकर स्कूल के दिनों वाली क्लासों की।
ऐसा नहीं है की परेशानी सिर्फ मुझे ही थी क्योंकि मुझे वहां की भाषा नहीं आती थी। जैसे की मैंने पहले बताया की उन दिनों बी एड सिर्फ एक साल का था लेकिन जो सिलेबस था कम से कम दो साल से तो ज्यादा का था ही और हमारे ऊपर उस सिलेबस से सम्बंधित जो काम था वो बिलकुल वैसे ही था जैसे एक बड़े समंदर को एक छोटे गागर में भरना हो। सभी बहुत परेशान थे और मैं उनसे भी ज्यादा क्योंकि मुझे तो निर्देश ही समझ में नहीं आते थे।
काफी समय हो गया था और मेरा काम भी समय पर पूरा नहीं हो पा रहा था। इसी कारण एक दिन मुझे मीटिंग में बुलाया गया जिसमे एक या दो प्रोफेसरों को छोड़कर प्रिंसिपल सर सहित सभी मौजूद थे बिलकुल राउंड टेबल कांफ्रेंस की तरह और सामने मैं खड़ा था बिलकुल अकेला विश्राम की मुद्रा में। मेरे काम से सम्बंधित कुछ बातें हुई। बातें तो हुई लेकिन कुल मिलाकर मुझपे ही दबाव डाला गया की मुझे काम समय पर पूरा करना चाहिए और पूरी गलती मेरी ही है। हो सकता है बाद में मेरे पक्ष में कुछ बातें हुई हों पर इस बारे में मैं पक्का कुछ नहीं कह सकता। एक तरह की बेईज्जती महसूस हो रही थी।
क्लास ख़त्म होने के बाद सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए दो लड़कियों ने मुझसे थोड़ी हमदर्दी दिखाया और मैं उनसे अपना दुखड़ा कहता रहा। नीचे उतरने के बाद और पार्किंग में पहुंचने के बाद उनमें से एक ने कहा की आप टेंशन छोड़ो और जरा स्कूटी को किक मार दो स्टार्ट नहीं हो रही है। मैंने सोचा अच्छा तो हमदर्दी के पीछे ये वजह थी। खैर जब उनलोगों ने इतने प्यार से कहा तो मैंने कई बार किक मारकर स्कूटी स्टार्ट कर ही दिया। और वो लोग प्यार से बाय कहके चली गयी। मैंने सोचा कितनी इंसानियत है इनमें,अच्छा है हमदर्दी तो दिखाई, झूठी ही सही।
उसके बाद मैं भी अपने उदास मन से अपनी मोटरसाइकिल पर निकल पड़ा। मन में ये सोचते हुए की जब इन्हे मालूम था की मुझे यहाँ की स्थानीय भाषा नहीं आती तो मुझे यहाँ एडमिशन देने की क्या जरुरत थी और मैंने इन्हे एडमिशन लेने से पहले अपनी ये समस्या बताया था। फिर इन्होने ने क्यों कहा था की मुझे यहाँ ये समस्या नहीं होगी। और घरवाले भी नहीं मान रहे है। अब क्या करूँ। मैं गलत नहीं हूँ फिर भी इतना परेशान हो रहा हूँ। इन्ही चिंताओं में मैं डूबा हुआ अपनी मोटरसाइकिल पर घर की ओर जा रहा था की मेरे आगे जा रही बस के पीछे मुझे ये लाइन दिखी "सत्य परेशान हो सकता है ,पराजित नहीं " इस लाइन को देखने के बाद मुझे समस्या का समाधान तो नहीं मिला लेकिन इस समस्या के साथ खुशी से जीवन जीने की हिम्मत जरूर मिल गयी। समस्याएं तो ख़त्म नहीं हुई लेकिन अपना काम करते हुए मैं आने वाली समस्याओं का आनंद लेता रहा। और मैं बेहतर करने की कोशिश करता रहा। एक दिन वो समय भी आया जब मैंने बी एड पास कर लिया।
अब इस आधार पर मैं ये समझ सकता हूँ की जीवन में कभी भी समस्या आये और अगर मैं सही हूँ यानि की सत्य के साथ हूँ भले ही अकेला हूँ और सामने कितनी भी परेशानी आये लगातार बिना डरे कोशिश करते रहने से मैं सफल जरूर हो जाऊँगा। अब मुझे वाहनों के पीछे लिखी ये लाइन नज़र नहीं आती है। हो सकता है बाद में कभी नज़र आये लेकिन जब कोई ऐसी परिस्तिथि आती है तो मुझे ये लाइन जरूर याद आती है और ध्यान में रखते हुए अपना काम करता रहता हूँ। वैसे ये लाइन सिर्फ मेरे लिए नहीं है ये आपके लिए भी उतना ही मायने रखती है।
लेकिन सिर्फ ये सोच कर ही खुश होने की आवश्यकता नहीं है साथ में ये भी तो सोचना है की क्या सत्य सिर्फ परेशान होने के लिए ही बना है। आखिर जीवन को सही से और आनंद से जीना भी तो है। हमेशा परेशानियों और बिना खुश हुए जिए तो क्या जिए। यहाँ मैं महाभारत का उदाहरण देना चाहूंगा की माना की पांडव सही थे और तमाम परेशानियों से लड़ते हुए उन्होंने जीत भी हासिल किया लेकिन क्या वो जीत उन्हें वो खुशी दे पायी ? जवाब है "नहीं "क्योंकि अपनों का खून बहाकर पायी हुई जीत उन्हें रास नहीं आयी और फिर से वो लोग राजपाट छोड़कर वनवास के लिए चले गए। वैसे ही आज हमें भी सोचना पड़ेगा की जीवन को इंसानियत की भावना से और खुशी से कैसे जियें।
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Nice
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