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एक दिन ऐसे ही सोशल मीडिया पर थोड़ा वक़्त बिता रहा था। वैसे तो बहुत सारी चीज़ें देखने को मिली सोशल मीडिया पर लेकिन एक प्रचार जो की एक एयर प्यूरीफायर मशीन का था ने मेरा ध्यान अपनी ओर ज्यादा आकर्षित किया। उस प्रचार में एक सेलेब्रिटी महोदय उस मशीन के बारे में बता रहे थे। वो बड़े ही खुशी से और आत्मविश्वास से उस मशीन के फायदे बता रहे थे। और साथ में उन्होंने ये भी कहा की वो इस मशीन का इस्तेमाल हर जगह करते हैं जैसे की अपने घर में ,जहाँ जहाँ काम करते हैं वहां वहां।
ये सिर्फ एयर प्यूरीफायर मशीन की ही बात नहीं है ऐसी बहुत सारी चीज़ों की ओर गौर करने की जरुरत है जिनका प्रचार बड़े आत्मविश्वास के साथ होता है। वाटर प्यूरीफायर मशीन का ही प्रचार देख लीजिये जिसमें बताया जाता है की इसका इस्तेमाल करके साफ़ पानी पीजिये लेकिन साथ में ये भी तो सोचना पड़ेगा की पानी को गन्दा कौन करता है और इतना अशुद्ध कौन कर रहा है की साफ़ पानी पीने के लिए मशीन की जरुरत पड़े।
ये अच्छी बात है की हम तरक्की कर रहे हैं। अपने जीवन को आसान और सुविधाजनक बना रहे हैं। नयी नयी चीज़ें बाजार में आ रही हैं और उनके फायदे भी अदभुत हैं। मशीन लगाइये शुद्ध पानी पीजिये ,मशीन लगाइये शुद्ध हवा पाईये ,मशीन लाईये ये पाईये वो पाईये और पता नहीं क्या क्या पाईये।
क्या ये एयर प्यूरीफायर मशीन के प्रचार से हमें ये नहीं सोचना चाहिए की इसकी जरुरत क्यों पड़ रही है। हाँ , बहुत से समझदार लोगों का ये जवाब होगा की इससे तुम्हारा ही फायदा है। ये तुम और तुम्हारे परिवार के स्वास्थ्य के लिए अच्छा है। तुम्हारी मर्ज़ी है लेना है तो लो नहीं तो मत लो कोई जबरदस्ती थोड़े ही है। इसको खरीदने और बेचने की प्रक्रिया से व्यापार और अर्थव्यव्स्था में लाभ होगा और रोजगार की संभावना भी बढ़ेगी वगैरह वगैरह। लेकिन फिर भी ये मुद्दा सोचने ,समझने और अमल में लाने लायक है की हमें एयर प्यूरीफायर मशीन की जरुरत क्यों पड़ रही है।
सीधी सी बात है क्योंकि वायु प्रदूषण बढ़ रहा है इसलिए जरुरत पड़ रही है। वायु प्रदूषण इतना बढ़ रहा है की हवा साँस लेने लायक नहीं रही है। शुद्ध हवा के लिए हमें मशीन की जरुरत है।
लेकिन सिर्फ इतने ही जवाब से संतुष्ट होने की जरुरत नहीं है चूंकि हम आगे बढ़ रहे हैं और तरक्की कर रहे हैं तो हमारी सोच भी स्वतंत्र है तो हमें ये भी सोचना चाहिए की हवा गन्दी क्यों हो रही है।
भगवान या फिर प्रकृति के कारण तो ये वायु प्रदूषण तो नहीं हो रहा है। अगर मान लें की प्रकृति के कारण भी वायु प्रदूषण होता है तो भी ये मानना तो ठीक नहीं है की इतना प्रदूषण होता होगा की शुद्ध हवा मिलनी ही मुश्किल हो जाये। इसमें कोई दो राय नहीं है की हम इंसान ही हवा को गन्दा कर रहे हैं और इससे होने वाले प्रकोप से बचने के लिए नए नए मशीन रूपी उपाय भी ढूढ़ रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं की विज्ञान के दम पर हम मानव ये हठ पर अड़े हुए हैं की हम प्रकृति के साथ खिलवाड़ नहीं रोकेंगे। बस इन अविष्कारों को खरीदते रहिये और उन प्रकोपों से बचते रहिये जो हमारे प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने के कारण हो रहे हैं।
क्या हमें वाक़ई एयर प्यूरीफायर मशीन की जरुरत है - इसका जवाब हाँ में भी हो सकता है और ना में भी हो सकता है ये तय होता है हमारी जीवनशैली से , हम जहाँ रह रहे हैं वहां की वायु कैसी है। अगर हमारी दिनचर्या सही है जैसे सुबह जल्दी उठना दूर तक पहाड़ों और जंगलों की तरफ निकल जाना टहलने के लिए या फिर कसरत के लिए तो ऐसा करते हुए हमें ये एहसास तो जरूर होगा की शुद्ध हवा कैसी होती है और कैसी होनी चाहिए। सेहतमंद जीवन के प्रति लगाव ,प्रकृति से नजदीकी और लगाव हमें प्रेरित करती रहेगी की हम ऐसी तरक्की करें जिससे प्राकृतिक सम्पदाओं को नुकसान ना पहुंचे जिससे की हमें एयर प्यूरीफायर जैसी मशीनों की जरुरत ना पड़े।
सुबह जल्दी उठना ,ताज़ी हवा लेना , जहाँ तक हो सके सादे तरीके से जीना और उसके महत्व वाली बात तो ठीक है लेकिन रोजगार की भी तो समस्या है। मान लीजिये अभी मैं ऐसी जगह पर हूँ जहाँ पेड़ पौधे या यूँ कहूं की प्राकृतिक सम्पदा सही मात्रा में है और मैं बिलकुल सही जीवनशैली अपना रहा हूँ। लेकिन कल को रोजगार के कारण मुझे किसी ऐसे महानगर में जाना पड़े जहाँ बहुत तरक्की हो रखी हो। जाहिर सी बात है जिन जगहों पर तरक्की ज्यादा होगी वहां धुआँ उगलते कारखाने होंगे ,बहुत भीड़ भाड़ होगी ,बहुत बड़ी बड़ी इमारतें होंगी ,बड़े चौड़े रोड होंगे ,गाड़ियों के शौक़ीन लोग होंगे और पेड़ पौधे तो नाममात्र के होंगे। ऐसी जगहों पर अगर मेरी हैसियत हुई और अगर मुझे ताज़ी हवा लेनी है तो मुझे ऐसी मशीन खरीदना ही पड़ेगा इसमें कुछ भी गलत नहीं है।
मैंने ऐसे पेड़ पौधों के बारे में भी सुना है जिनसे हवा शुद्ध हो सकती है और उन्हें अपने कमरे में गमले में लगा कर रखा जा सकता है।
एक सवाल तो ये भी उठता है की जो जगहें डेवेलप्ड हैं वहां भीड़ -भाड़ ,प्रदुषण और कंक्रीट के जंगल ज्यादा क्यों हैं ? उन जगहों पर पेड़ पौधे बहुत ही कम और नाम मात्र के ही क्यों हैं ? जबकि उन जगहों के लोग ज्यादा पढ़े लिखे होते हैं। हर चीज़ को उनका देखने का नजरिया वैज्ञानिक और प्रगतिशील होता है। फिर भी उनका हर कदम या प्रयास जो की विकास के लिए होता है वो प्रकृति को नुकसान पहुँचाने वाला ही क्यों होता है। आखिर जो भी कदम उठाना है उसका आगे क्या सही और क्या गलत परिणाम हो सकता है हम ये अंदाजा लगा सकते हैं और यह भी तय कर सकते हैं की हम जो भी करने जा रहे हैं उसमें बेहतर क्या हो सकता है की हम विकास भी करें और प्रकृति और अपने स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ भी ना हों। क्यों ना ऐसा कदम उठायें जो हर तरह से सही हो।
जैसा की मैंने इस लेख की शुरुवात एक सेलेब्रिटी का उदाहरण देकर किया लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है की सेलेब्रिटीज़ ,नेता और वी आई पी लोगों की वास्तव में इन मुद्दों के प्रति कैसी मानसिकता है ,उन्हें क्या कदम उठाना चाहिए ये मुझ जैसा आम आदमी सिर्फ कल्पना ही कर सकता है लेकिन उन लोगों को समझना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी लगता है। लेकिन एक आम आदमी होने के नाते मैं यह जरूर समझने की कोशिश कर सकता हूँ की एक आम आदमी अपने स्तर पर क्या क्या कर सकता है और क्या क्या नहीं करने से हमारा जीवन भी अच्छे से चल सकता है प्रकृति और सेहत को नुकसान पहुंचाए बगैर।
नयी नयी गाड़ियों का शौक - मैंने अपनी उम्र वालों में और मेरे बाद की उम्र वालों में ये बात गौर किया है की ज्यादातर लोगों में गाड़ियों का शौक बहुत ही ज्यादा है वो भी जरुरत के हिसाब से नहीं फैशन के हिसाब से। आमतौर पर नए लोगों में ये मानसिकता होती है की जिसके पास जितने अच्छे और लेटेस्ट मॉडल की बाइक है वो उतना ही अच्छा है और उसे उतना ही गर्व महसूस होना चाहिए भले ही वो और किसी काम की ना हो सिवाय स्टाइल मारने के। जैसे मैं अगर कोई बाइक पसंद करूँगा तो ये ध्यान रखूँगा की वो मेरे बजट में है की नहीं ,मुझे वाकई उस गाड़ी की जरुरत है की नहीं ,उसका एवरेज कितना है वगैरह वगैरह। मेरे पास कितने भी पैसे हों लेकिन अगर मुझे वाकई जरुरत नहीं है तो मैं सिर्फ दिखावे के लिए तो बाइक या फिर कोई बड़ी गाड़ी नहीं खरीदूंगा।
मेरी इस बात पर भी कई लोगों की राय ये हो सकती है की भाई अगर तुम्हे पसंद नहीं है तो तुम मत लो लेकिन दूसरों को ये राय देना ठीक नहीं है की उन्हें क्या लेना चाहिए और क्या नहीं लेना चाहिए। जिनके पास पैसा है और जिन्हे पसंद है वो तो लेंगे ही। ये बात भी ठीक है की उनकी मर्ज़ी अगर उनके पास पैसा है और अगर उनको नयी गाड़ियों का शौक है तो वो तो लेंगे ही।
लेकिन क्या हमे इस बात की तरफ ध्यान देने की जरुरत नहीं है की जिस तरह से हम इंसानों की जनसँख्या बढ़ती जा रही है उसी तरह से हमारी जरूरतें भी बढ़ती जा रही हैं और हम चीज़ों का उपभोग भी ज्यादा कर रहे हैं। जैसे अगर सबको नयी गाडिओं का शौक होगा और सबके पास बड़ी बड़ी गाड़ियाँ आती रहेंगी और इस्तेमाल होती रहेंगी तो सड़क पर ट्रैफिक की समस्या बढ़ेगी। इस समस्या से निपटने के लिए नयी सड़के भी बनानी पड़ेंगी और जो पुरानी सड़के हैं उनको चौड़ा भी करना पड़ेगा इन सबमें पेड़ कटेंगे और वायु प्रदुषण को बढ़ावा मिलेगा और उसका खामियाजा सबको भुगतना पड़ेगा जिनको बाइक और बड़ी गाड़ियों का शौक नहीं है उनको भी। कहने का मतलब यही है की हमें बाइक या बड़ी गाड़ियों जैसी चीज़ों का इस्तेमाल बहुत ही सोच समझकर करना चाहिए ये ध्यान में रखते हुए की इससे कहीं हम अपने आसपास के वातावरण को और अपनी सेहत को नुकसान तो नहीं पहुँचा रहे हैं।
रोजगार की मजबूरी - कुछ हद तक रोजगार की वजह से भी प्रदुषण बढ़ता है। जब हम बड़ी कक्षाओं में प्रवेश करते हैं तभी से हमें रोजगार की चिंता सताने लगती है तब से हमारी सोच यही होती है की कैसे भी हमारा अच्छा करिअर बन जाये। ऐसी सोच बनने के बाद हम हर चीज़ ये ध्यान में रखते हुए याद करते हैं की इससे हमें अच्छे नंबर मिल जायेंगे और बाद में हम उसे भूल जाते हैं।
हम ये तो सोचते ही नहीं की इसका हम अपने आसपास और अपने जीवन में क्या उपयोग कर सकते हैं और इसका हमारे जीवन में क्या महत्व है। हम इसे एक उदाहरण से समझ सकते हैं - स्कूल के समय और कॉलेज की पढ़ाई के दौरान बहुत बार हमको ये प्रदुषण के ऊपर जानकारी मिलती है और हम इसे पढ़ते भी हैं कभी निबंध के रूप में , समाचार के रूप में ,कविताओं के रूप में। हममें से बहुत लोगों ने इस विषय पर मंच पर कार्यक्रम भी किया होगा जैसे कविता बोला होगा , इससे सम्बंधित किसी नाटक में भाग भी लिया होगा इत्यादि। अगर हमने किसी भी परीक्षा की तैयारी किया होगा तो कभी ना कभी तो इस मुद्दे के ऊपरहमने पढ़ा ही होगा। लेकिन ये सब हमने क्यों किया ? क्या वाकई हमने प्रदूषण की समस्या को समझने की लिए किया ? जवाब है नहीं क्योंकि हमने उसके बारे में पढ़ा इसलिए की हमें अच्छे नंबर मिल जाएँ ,हम किसी कार्यक्रम में अच्छा प्रदर्शन करें हमें खूब वाहवाही मिल जाये ,किसी अच्छी नौकरी के लिए परीक्षा में अच्छे अंक लाएं ,किसी इंटरव्यू में अगर ये मुद्दा आये तो उस पर सही से बोला जा सके ताकि सामने वाले पर हमारा अच्छा प्रभाव पड़े। ये अच्छी बात है इन वजहों से ही सही लेकिन हम इस मुद्दे पर बात करते रहते हैं।
लेकिन आम आदमी को इस पर वाकई जागरूक होने की जरुरत है और उपाय करने की भी। हमें प्रदुषण से जुड़े उपायों को सिर्फ कोई सिलेबस समझकर भूलना नहीं है बल्कि अपने जीवन में वाकई अपनाने की जरुरत है। लेकिन हमारी सबसे बड़ी समस्या यही है की बेरोजगार की हमारे परिवारों और समाज में इज़्ज़त नहीं होती भले ही वो कितने भी अच्छे विचार रखता हो और मेहनती हो। हमारे समाज में ये सोच होती है की पहले पैसे कमाओ और उसके लिए कुछ भी करो कैसे भी पैसे कमाओ और इस विचारधारा के कारण कहीं ना कहीं अच्छा बुरा ,सही गलत ,प्रदुषण जैसे मुद्दे दब के रह जाते हैं क्योंकि ऐसे मुद्दे बेकार लगने लग जाते हैं। और एक आम आदमी होने के नाते मैं ये समझ सकता हूँ की नौकरी कर के घर आने के बाद आदमी सोचता है की अब थोड़ा रिलैक्स हुआ जाये अब बाकि कुछ करने को मन भी नहीं करता क्योंकि अगर वो रिलैक्स नहीं होगा तो अगले दिन जॉब में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पायेगा। वैसे ये बात भी सही है कभी ना कभी तो हमें ये सोचना पड़ेगा की जॉब हमारे जीवन की ताकत बने हमारे जीवन की मजबूरी नहीं।
नैतिकता का अभाव - ये सही है की समय गुजरने के साथ साथ बहुत सारे लोग शिक्षित हुए और खेती और पहले से जो पारम्परिक रोजगार जैसे की किसान का बेटा किसान ही बनेगा ,बाल काटने वाले का बेटा भी बाल ही काटेगा इत्यादि के बंधन से मुक्त हुए और गांव से बाहर निकलकर और भी तरह के रोजगारों को अपनाया और पहले से ज्यादा की तरक्की भी किया।
लेकिन ये भी सच है की इसका एक बुरा प्रभाव भी पड़ा। ज्यादातर परिवारों में एक तरह की प्रतियोगिता की भावना शुरू हो गयी एक दूसरे से खुद को बेहतर दिखाने की और एक साथ मिलकर रहने के बजाय एक समय बाद अलग होने की भावना को बल मिला। इस कारण से जो खेती वाली और बगीचे वाली जगहें थी उनका भी बंटवारा होने लगा और उन जगहों पर भी घर बनने लगे जिसके कारण आज बहुत से गांवो में खेत और बगीचे कम दिखते हैं। भले ही रोजगार मिलने के बाद लोग बाहर रहते हों लेकिन अलगाववाद वाली सोच और बंटवारे के कारण गांव में भी अपना अलग घर बनाते हैं और वो घर खेती वाली जगहों पर ही बनाते हैं।
मैं जब अपने गांव जाता हूँ तो मुझे इस बात का अफ़सोस जरूर होता है की अब मेरा वो गांव पहले की तरह लहराते खेतों वाला और बगीचों वाला नहीं रहा। अब वहां सिर्फ मकान ही मकान दिखते हैं। वहां की ऐसी जगहों पर भी मकान और दुकान दिखते हैं जहाँ के बगीचों और खेतों में कभी खेलते हुए मेरा बचपन गुजरा है। ये वजह भी है प्रदूषण बढ़ने की। हमें जागरूक होना पड़ेगा सही तरीके से जीवन जीने के लिए और अपने पर्यावरण को बचाने के लिए। ये भी सही है की भले ही लोग पहले ज्यादा पढ़े लिखे नहीं होते थे लेकिन उनमें नैतिकता की भावना ज्यादा थी। पहले ज्यादातर बड़े परिवारों में भी लोग नैतिकता के कारण एक साथ खुशी से रह लेते थे लेकिन अब ज्यादातर कम परिवारों में भी लोग खुशी से नहीं रह पाते हैं। ऐसा नहीं है की पढाई के दौरान ये नहीं सिखाया जाता की एकता में ही बल है और हमें मिलकर ही रहना चाहिए। लेकिन जैसा की मैंने ऊपर उल्लेख किया है की हम पढ़ते सिर्फ नंबर लाने के लिए हैं और रोजगार को ध्यान में रखते हुए पढ़ते हैं तो ऐसे में हम उस ज्ञान को अपने व्यवहारिक जीवन में कैसे लायेंगे।
विकास को लेकर हमारी मानसिकता - अगर किसी जगह के विकास को लेकर हम कल्पना करते हैं तो हमारे सामने कैसी तस्वीर आती है यही ना की जो जगह विकसित हो रहा है वहां बहुत ही अच्छे और चौड़े रोड होंगे ,स्ट्रीट लाइटें होंगी ,बड़ी बड़ी बिल्डिंगें होंगी , बड़ी बड़ी फैक्टरियां होंगी ,रोजगार के अवसर होंगे ,अत्याधुनिक मशीनें होंगी ,जो जितना पैसा कमा ले वो उतना ही अच्छा होगा और उसकी उतनी ही अच्छी जिंदगी होगी चाहे उसके लिए उसे मशीनों के साथ मशीन की तरह दिन रात काम करना पड़े ,अगर बीमार पड़े तो हर तरह की दवाइयाँ तो उपलब्ध होंगी ही दवाईयां लो और काम पर लग जाओ। ऐसे में अगर कोई प्रकृति के संरक्षण की बात करे सादे जीवन की बात करे तो ऐसा लगेगा की वो बेवकूफी भरी बात कर रहा है।
एक बार मैं एक प्रसिद्ध और विकसित शहर में एक परीक्षा देने गया था। वहां लोकल ट्रेन में सफर के दौरान मेरी दोस्ती एक यात्री से हो गयी। वहाँ ट्रेन में चढ़ने से लेकर दूसरी ट्रेन में जाने के दौरान मैंने गौर किया की भीड़ हद से ज्यादा है और लोकल ट्रेन जिस तरह से आकर रुकती है और अचानक जिस तरह से तेज़ी से चल पड़ती है उससे बुरी तरह से घायल होने और जान जाने की भी बहुत ज्यादा सम्भावना है। मैंने उस उस यात्री से पूछ ही लिया की आप का काम यहाँ कैसे जी रहे हो। मेरा तो इतनी देर में ही हालत ख़राब हो रहा है। उसने कहा अरे कोई ताज्जुब की बात नहीं है। इस हालत में यहाँ रोज लोग मरते हैं। अभी हम यहाँ खड़े हैं दूसरे किसी कोने में इस भीड़ के कारण और लोकल ट्रेन की चपेट में आकर कोई ना कोई जरूर मरा होगा। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। यहाँ जिंदगी ऐसे ही चलती रहती है और दूसरा कोई विकल्प भी नहीं है अपनी रोज़ी रोटी के लिए ये सब करना ही पड़ता है।
इस बात को लेकर हो सकता है की इसके जवाब में मुझे कुछ लोगों से ये सुनना पड़े की बड़े बड़े शहरों में ऐसी छोटी छोटी बातें होती रहती हैं राकेश या फिर ये भी सुनने को मिल सकता है की इन शहरों में कुछ कुछ नहीं ,बहुत कुछ होता है ,तुम नहीं समझोगे राकेश। लेकिन फिर भी मुझे ये लगता है की जागरूक नागरिकों को कभी ना कभी तो ये सोचना ही पड़ेगा की ऐसा भी क्या विकास ,और ऐसी भी क्या नौकरी की मजबूरी की इसमें आदमी की जान चली जाये और ये आयी गयी बात हो जाये। क्यों ना हर आम आदमी विकास को लेकर अपनी मानसिकता बदलने की कोशिश करें और ऐसा विकास की कल्पना करें जो ऐसा हो जो सही रोजगार भी दे सके और सही जीवन जीने का अवसर भी दे सके। कभी कभी तो ऐसा लगता है की रोजगार हम और हमारे जीवन के अच्छे की लिए नहीं हम रोजगार करने की लिए बने हैं।
हम आम लोगों को भी बनाने से ज्यादा अपने आसपास पेड़ लगाने और अपने आसपास के पर्यावरण को अच्छा रखने के लिए जागरूक होकर काम करने की जरूरत है वो भी जितनी अपनी हैसियत है उसके हिसाब से। उदाहरण के तौर पर अगर किसी आदमी की महीने की आय १०००० रुपए है तो वो अपनी आय में से ५० से लेकर १००० तो खर्च कर ही सकता है अपने आसपास पेड़ लगाने और उसकी देखरेख करने के लिए। इसी तरह से और भी बहुत से उपाय हो सकते हैं जो आम आदमी कर सकता है अपने आसपास के पर्यावरण को अच्छा रखने के लिए।
जितना जरूरी हमारे लिए पैसे कमाना और तरक्की करना है उतना ही जरूरी हमारे लिए पर्यावरण का ध्यान रखना और सही से जीवन जीना भी है।
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Nice
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